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महाशिवरात्रि: इस वजह से भोलेनाथ को बहुत प्रिय है बेलपत्र

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आप सभी जानते ही होंगे कि आज महाशिवरात्रि है. हर साल आने वाली महाशिवरात्रि इस साल 4 मार्च को यानी आज मनाई जा रही है. ऐसे में इस दिन भोलेनाथ जी को बेलपत्र चढ़ाना खूब अच्छा माना जाता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि आखिर क्यों भोलेनाथ जी को बेलपत्र चढ़ाई जाती है. अगर नहीं तो हम आज आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर क्यों चढ़ाई जाती है भोलेनाथ को बेलपत्र. इसके पीछे एक कथा है जो आज हम आपको बताने जा रहे हैं. आइए जानते हैं.

कथा - नारदजी ने एक बार भोलेनाथ की स्तुति कर पूछा- प्रभु! आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे उत्तम और सुलभ साधन क्या है? हे त्रिलोकीनाथ! आप तो निर्विकार और निष्काम हैं, आप सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं फिर भी मेरी जानने की इच्छा है कि आपको क्या प्रिय है?
शिवजी बोले- नारदजी! वैसे तो मुझे भक्त के भाव सबसे प्रिय हैं, फिर भी आपने पूछा है तो बताता हूं. मुझे जल के साथ-साथ बिल्वपत्र बहुत प्रिय है. जो अखंड बिल्वपत्र मुझे श्रद्धा से अर्पित करते हैं, मैं उन्हें अपने लोक में स्थान देता हूं. नारदजी भगवान शंकर और माता पार्वती की वंदना कर अपने लोक को चले गए. उनके जाने के पश्चात पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- हे प्रभु! मेरी यह जानने की बड़ी उत्कट इच्छा हो रही है कि आपको बिल्व पत्र इतने प्रिय क्यों है? कृपा करके मेरी जिज्ञासा शांत करें.
शिवजी बोले- हे शिवे! बिल्व के पत्ते मेरी जटा के समान हैं. उसका त्रिपत्र यानी 3 पत्ते ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं. शाखाएं समस्त शास्त्र का स्वरूप हैं. बिल्ववृक्ष को आप पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझें, जो ब्रह्मा-विष्णु-शिव स्वरूप है. 
स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर बिल्ववृक्ष रूप में जन्म लिया था. यह सुनकर पार्वतीजी कौतूहल में पड़ गईं. उन्होंने पूछा- देवी लक्ष्मी ने आखिर बिल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया? आप यह कथा विस्तार से कहें. भोलेनाथ ने देवी पार्वती को कथा सुनानी शुरू की.
हे देवी! सतयुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर लिंग था. ब्रह्मा आदि देवों ने उसका विधिवत पूजन-अर्चन किया था फलत: मेरे अनुग्रह से वाग्देवी सबकी प्रिया हो गईं. वे भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं.

मेरे प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जितनी प्रीति हुई वह स्वयं लक्ष्मी को नहीं भाई अत: लक्ष्मी देवी चिंतित और रुष्ट होकर परम उत्तम श्री शैल पर्वत पर चली गईं. वहां उन्होंने मेरे लिंग विग्रह की उग्र तपस्या प्रारंभ कर दी. हे परमेश्वरी! कुछ समय बाद महालक्ष्मीजी ने मेरे लिंग विग्रह से थोड़ा ऊर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया और अपने पत्र-पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगीं. इस तरह उन्होंने कोटि वर्ष (1 करोड़ वर्ष) तक आराधना की. अंतत: उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ.

महालक्ष्मी ने मांगा कि श्रीहरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है, वह समाप्त हो जाए. शिवजी बोले- मैंने महालक्ष्मी को समझाया कि श्रीहरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है. वाग्देवी के प्रति तो उनकी श्रद्धा है. यह सुनकर लक्ष्मीजी प्रसन्न हो गईं और पुन: श्रीविष्णु के हृदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगीं. हे पार्वती! महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार इस प्रकार दूर हुआ था. इस कारण हरिप्रिया उसी वृक्षरूप में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्नपूर्वक मेरी पूजा करने लगीं. बिल्व इस कारण मुझे बहुत प्रिय है और मैं बिल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं.

बिल्व वृक्ष को सदा सर्व तीर्थमय एवं सर्व देवमय मानना चाहिए. इसमें तनिक भी संदेह नहीं है. बिल्वपत्र, बिल्व फूल, बिल्व वृक्ष अथवा बिल्व काष्ठ के चंदन से जो मेरा पूजन करता है, वह भक्त मेरा प्रिय है. बिल्व वृक्ष को शिव के समान ही समझो. वह मेरा शरीर है. जो बिल्व पर चंदन से मेरा नाम अंकित करके मुझे अर्पण करता है, मैं उसे सभी पापों से मुक्त करके अपने लोक में स्थान देता हूं. उस व्यक्ति को स्वयं लक्ष्मीजी भी नमस्कार करती हैं. जो बिल्वमूल में प्राण छोड़ता है, उसको रुद्र देह प्राप्त होता है.

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